स्वार्थी सियासत के निशाने पर है अन्नदाताओं का आंदोलन? कथित फिक्रमंद नेता! किसानों की चिंता कम -कुर्सी की ज्यादा? पक्ष व विपक्ष की सियासी थाली में संदेहो से घिरे हैं किसान!

कृष्ण कुमार द्विवेदी(राजू भैया)

सर्द रातों में सड़कों पर आंदोलन को बैठे अन्नदाता देश के भाग्यविधाता की साख पर कलंक

सरकार व किसानों का बातचीत करना सकारात्मक लेकिन चूक तो जरूर हुई है?

कृष्ण कुमार द्विवेदी(राजू भैया)

सर्द रातों में सड़कों पर बैठे अन्नदाता देश के सियासी भाग्यविधाताओं की साख पर कलंक है। पक्ष व विपक्ष की सियासी थाली में किसान संदेहों में घिर कर इधर-उधर लुढ़कते दिखाई दे रहे हैं। हाँ सरकार एवं किसानों में वार्ता का रुख सकारात्मक है। लेकिन फिर भी सियासत की स्वार्थी नजरों के निशाने पर अन्नदाताओं का पूरा आंदोलन भी है? नंगा सच यह है कि अन्नदाताओं के तथाकथित फिक्रमंद नेताओं को किसानों की कम बल्कि अपनी कुर्सी की चिंता ज्यादा है? ऐसे में किसान आंदोलन को सियासी सपोलों के जहर से बचना भी होगा!

केंद्र सरकार के द्वारा लाए गए किसान बिल में चूक हुई है या कुछ गड़बड़ है? ऐसे तमाम संदेहों को दूर करने का प्रथम कर्तव्य अब केंद्र सरकार का ही है। क्योंकि जिस तरह से देश के अन्नदाता भगवान सर्द रातों में सड़कों पर बैठे हुए हैं इसकी अनदेखी भी नहीं की जा सकती। सत्य यह भी है कि कोई भी पूर्ण बहुमत की सरकार ऐसा कोई बिल नहीं ला सकती जो किसानों के एक बड़े समूह को नाराज करने वाला हो।

हां यह जरूर हो सकता है कि बिल में कहीं चूक हुई हो या कहीं कोई गड़बड़? किसानों की चिंता है कि यदि उसके उत्पाद की खरीद मंडी में नहीं होगी तो सरकार यह तय नहीं कर पाएगी कि किसानों को न्यूनतम समर्थन मूल्य मिल रहा है या नहीं? फिलहाल एमएसपी पर अब सरकार अपना रुख स्पष्ट कर चुकी है! जबकि किसान यह भी चाहते हैं कि उनके साथ खिलवाड़ करने वाले लोग जेलों में डाले जाएं तथा उन्हें मौका पड़ने पर अदालत में जाने का अधिकार भी मिले।

किसान बिल में अभी तक यह व्यवस्था है कि किसान एसडीएम व डीएम के दरवाजे पर जा सकता है। ऐसे में यहां भी मतभेद है। खास यह है कि एमएसपी व मंडी व्यवस्था से लेकर कई बिंदुओं पर सरकार व किसान संगठनों के बीच रार मची हुई है। स्पष्ट है कि भले ही किसान बिल केंद्र सरकार किसानों के हित में लाई हो लेकिन इस बिल को लाने से पहले केंद्र सरकार को किसानों के साथ चिंतन भी करना चाहिए था। यदि किसानों के मत भी इस बिल में पहले से ही शामिल होते तो आज किसान सर्द रातों में सड़क पर ना बैठा होता?

ज्ञात हो कि राष्ट्रीय सकल घरेलू उत्पाद में खेती-बाड़ी का कार्य लगभग 17 फ़ीसदी का योगदान करता है ।यही नहीं 40% मजदूरों की आजीविका भी इसी क्षेत्र के हिस्से में आती है? खास यह भी है कि इस पूरे आंदोलन में पंजाब एवं हरियाणा के किसानों की प्रभुता दिखाई दे रही है ?

फिलहाल भारतीय किसान यूनियन टिकैत व अन्य संगठनों की भागीदारी के बाद अब देश के विभिन्न हिस्सों से किसान भी इस आंदोलन से जुड़ चुके हैं! पंजाब-हरियाणा ऐसे राज्य हैं जहां पर कृषि उपज न्यूनतम समर्थन मूल्य पर लगभग 80% की खरीद होती है? जबकि देश के अन्य क्षेत्रों में यह खरीद केवल 9% तक ही होती है? ऐसे में यह समझा जा सकता है कि पंजाब एवं हरियाणा के किसानों की चिंता के मायने क्या है। वही इन राज्यों में आढ़तियों पर भी संकट है जो किसान व बड़े व्यापारियों के बीच की कड़ी है।

देश में अन्नदाताओं का आंदोलन एवं केंद्र सरकार के बचाव की मुद्रा इस बात का संकेत देती है कि दोनों ओर से कोई भी अपनी बात एक दूसरे को अच्छे ढंग से समझा नहीं पा रहा है। किसानों में यह बात बैठी है कि किसान बिल के खासकर तीन कानून देश के उद्योगपतियों को फायदा पहुंचाने के लिए बनाए गए हैं ।

इससे किसानों को भविष्य में तगड़ा घाटा होने वाला है ।ऐसे में केंद्र सरकार को इस शंका को दूर करना ही होगा। यह अच्छी बात है कि केंद्र सरकार तथा किसानों के बीच में वार्ताओं का दौर जारी है। भले ही किसान संगठनों ने आंदोलन तेज करने के संकेत दिए हो । जहां तक सवाल है देश के राजनीतिक दलों का तो किसानो को आंदोलन को इनसे दूरी बनाते हुए धार देते रहना होगा।

भारत बंद के दौरान जिस प्रकार से 20 से ज्यादा राजनीतिक दलों ने किसानों के आंदोलन के बंद का समर्थन किया उसे स्वागत योग्य कहा जा सकता है ।लेकिन यदि इसके मूल में जाया जाए तो विपक्षी दलों के लिए किसान यहां भी मोहरा भर थे?

क्योंकि इतने दिनों में मोदी सरकार के विरुद्ध विपक्ष कोई देशव्यापी आंदोलन खड़ा नहीं कर पाया है? खास बात यह है कि राजनीतिक दलों के तथाकथित फ़िक्रमंद नेताओं को किसानों की चिंता कम नजर आती है बल्कि उन्हें सत्ताई कुर्सी की चाबी कैसे हासिल होगी इसकी चिंता ज्यादा दिखती है? किसान आंदोलन के दौरान कई वरिष्ठ किसान नेताओं ने किसानों का ध्यान इस ओर दिलाया भी है? कई वक्ताओं ने साफ कहा भी है कि चाहे वह कांग्रेस हो अथवा सपा या फिर भाजपा अथवा कोई दल! सभी राजनीतिक दलों ने सत्ता में आने के बाद में किसानों के हितों से हमेशा मुंह मोड़ा है? ऐसे में हमें अपना आंदोलन आगे बढ़ाते रहना ही है।

किसान बिल पर जब विपक्ष के नेताओं ने अपना समर्थन दिया तो इस बात की होड़ ज्यादा दिखी कि वह इस मामले में चर्चा ज्यादा ले जाएं? मीडिया ने भी राजनीतिक दलों की किसान समर्थन की बात को बढ़-चढ़कर दिखाया! बंद के 24 घंटे के दौरान किसान के नेता पीछे दिखे! जबकि राजनीतिक दलों के चर्चित चेहरे आगे दिखाई दिए? सवाल है कि विपक्ष के नेताओं ने इस पर संसद में तगड़ी बहस करने की पहल क्यों नहीं की? इसकी मांग क्यों नहीं करते?

देश का यह दुर्भाग्य है कि आजादी के बाद से लगाकर आज तक किसानों को हमेशा वादे मिलते रहे हैं! उनके हिस्से में हमेशा मुसीबतें ही आती रही हैं! किसानों के परिजनों का जीवन कभी भी अच्छे स्तर पर नहीं उठ पाया! खासकर छोटे किसानों की स्थिति बद से बदतर है! वह जितना पैसा अपनी खेती में लगाते हैं कभी-कभी उसकी जमा भी वापस नहीं आती। सरकारी कारणों के साथ ही प्राकृतिक कारण भी उनके लिए मुसीबत पैदा करते हैं।

फसलों के सरकारी खरीद केंद्र भी बिचौलियों एवं दलालों तथा भ्रष्ट अधिकारियों के कब्जे में रहते हैं। जिसके चलते किसान को वहां भी उत्पीड़ित व अपमानित होना पड़ता है। उनकी अच्छी उपज को भी रद्दी बताया जाता है। भ्रष्टाचारियों का काकस कागजों में किसानों के नामो को बड़े व्यापारियों अथवा अनाज के दलालों व सफेदपोश चेहरों को फायदा पहुंचाने के लिए प्रयोग करता है? किसानों की खतौनी पर फर्जी खरीद होती है? लेकिन बेचारा किसान बस और बस केवल पाता है निराशा, झूठा वादा एवं जिंदगी की मूलभूत सुविधाओं के अभाव का तोहफा।

किसानों की दशा सुधरे इसके लिए पक्ष व विपक्ष के नेताओं को एकजुट होकर कोई सटीक मंथन करना ही होगा। दुर्भाग्य है कि यहां पर सत्ता पक्ष का विरोध केवल विरोध के लिए होता है? और सत्ता पक्ष भी विपक्ष की बातों को इसलिए तवज्जो नहीं देता क्योंकि वह सत्ता के रथ पर सवार होता है? वैसे मोदी सरकार ने नीम कोटिक यूरिया खाद लाकर यूरिया की कालाबाजारी रोकी! किसान सम्मान निधि जैसे कई योजनाएं चलाई ।लेकिन फिर भी यदि किसान बिल पर किसान संगठनों व किसानों को शक व संदेह है तो इसे दूर करने में उसे आगे आना चाहिए।

खासकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को स्वयं किसानों से सीधे बात करनी चाहिए। प्रधानमंत्री का यह कहना कि पुराने नियमों के साथ नई सोच को आगे नहीं बढ़ाया जा सकता ।इस तथ्य को उन्हें किसानों को सीधे समझाना चाहिए ।किसानों का विश्वास जीतना चाहिए ?किसान आंदोलन चल रहा है अन्नदाता सड़क पर हैं?

राजनीतिक दल तथा सामाजिक संगठन भी किसानों के पक्ष में खड़े हैं। आम जनता भी किसानों के प्रति हमदर्दी रखती है। अब यदि लोग किसी दल के मोटे चश्मे में घिरे हो तो उनके बारे में कुछ नहीं कहा जा सकता? लेकिन फिर भी किसान नेताओं को अपने आंदोलन को मजबूती से चलाएं रखने के लिए सियासत के जहरीले सपोलो से भी दूरी बनाए रखनी होगी? क्योंकि कई तथाकथित फिक्रमंद नेता ऐसे भी हैं जो सत्ता की भूख में तड़प रहे हैं? ऐसे में कहीं सियासत किसानों के आंदोलन को असफल ना कर दे? इसका ध्यान भी किसान नेताओं को रखना होगा ।विपक्ष के नेता किसानों को किसान बिल में कमियां हैं यह बढ़-चढ़कर बता रहे हैं वह भी तब जब किसानों ने अपना मोर्चा स्वयं संभाला?

केंद्र सरकार व कृषि मंत्री किसान बिल अच्छा है ये बता रहे हैं? और किसानों को समझा रहे हैं कि कहीं कोई गड़बड़ नहीं है ।जहां कुछ गड़बड़ है वहां हम संशोधन के लिए भी तैयार हैं ।प्रश्न यहां यह भी आता है ऐसे नियम क्यों बने जो किसानों के विरोध के बाद केंद्र सरकार को संशोधन के लायक दिखाई दिए ?इनमें पहले से ही सुधार क्यों नहीं किया गया था? जिससे शक एवं संदेश ना बढ़ते और किसान आंदोलन की राह ना पकड़ते?

कुल मिलाकर अन्नदाताओं का आंदोलन स्वार्थी सियासत की नजरों में है? अन्नदाता के तथाकथित फिक्रमंद नेताओं को उनकी चिंता कम दिखती है बल्कि कुर्सी की चिंता उन्हें ज्यादा नजर आती है? अन्नदाता को इससे सचेत रहना होगा । सच यह भी है कि केंद्र सरकार को भी इस पर जल्द से जल्द सकारात्मक निर्णय लेना होगा ।क्योंकि छोटे किसान अपने किसान संगठनों व किसान नेताओं पर खूब विश्वास करते हैं।किसानों की यह कड़ी आम गांव तक जाती है। ऐसे में किसानों की नाराजगी केंद्र सरकार के लिए भविष्य में बड़ी मुसीबत भी बन सकती है। यदि भाजपाई अथवा सरकार के लोग सत्ता के अहंकार में पड़े रहते हैं तो यह स्थिति बड़ी ही भयावह होगी?कृष्ण कुमार द्विवेदी(राजू भैया)

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