(त्वरित टिप्पणी) न्याय में बाधक बनती पुलिस कर्मियों की खोटपूर्ण नियति

प्रदीप सारंग 9919007190

प्रकरण इसी हफ्ते का है जब बाराबंकी नगर कोतवाली में तैनाती के दौरान एक दरोगा पर अपने कर्तव्यों का ठीक से पालन न करने तथा एफआईआर लिखवाने वाले वादी को न्याय न दिला पाने, एवं बिना ठीक से जाँच किये ही फाइनल लगा दिए जाने के आरोप में विवेचक दरोगा के खिलाफ कोर्ट के आदेश पर बाराबंकी में मुकदमा अपराध संख्या-482 अoधारा 166 आईपीसी दर्ज किया गया है। कोर्ट के आदेश पर हुई इस कार्यवाही से पुलिस विभाग में हड़कम्प मच गया है। वर्तमान में जनपद अयोध्या में तैनात निरीक्षक के खिलाफ बाराबंकी में दर्ज एफआईआर, यह सिद्ध करती है कि बेखौफ होकर अपने पद के दुरुपयोग करते हुए अन्यथा लाभ के चक्कर में पड़कर गलत को सही और सही को गलत करते रहने वाले लोगों को पुनः एकबार उस शपथ को याद करना होगा जो सर्विस ज्वाइन करते समय लेते हैं। सच यही है कि देश में सर्वाधिक शक्ति-सम्पन्न पुलिस कुछ अंशों में बेलगाम होती जा रही है।
सर्वशक्तिमान कौन है, ईश्वर या पुलिस? इस तुलनात्मक प्रश्न का उत्तर दे पाना आसान नहीं है। किंतु मेरे हिसाब से जिस तरह सामने न रहते हुए गलत काम करने वाले के दिल में ईश्वर का डर रहता है उसी प्रकार गलत लोगों के दिमाग में पुलिस का डर भी कम नहीं होता है। इस प्रकार की स्थिति में यह कहा जा सकता है कि एक की हम कल्पना करते हैं तो एक को प्रत्यक्ष देख सकते हैं। प्रायः यह कहा जाता है कि ऊपर वाले की मर्जी के बगैर पत्ता तक नहीं हिलता तो सच्चाई इस बात में भी है कि बिना पुलिस की मर्जी के भी पत्ता नहीं हिल सकता।
जितनी पौराणिक कथाएं प्रचलित हैं सब के सब में एक बात समान है कि जितने आतताई राक्षस हुए हैं सभी ने किसी न किसी देवता से वरदान प्राप्त किया हुआ है। यानी वरदान प्राप्त करने के पश्चात ही राक्षस आतंक मचाने में सफल हुए हैं। जब अति हो जाती है तब कोई न कोई देवता ही उन्हें मार गिराता है। ठीक ऐसे ही गाँव अथवा क्षेत्र में वही आतंक मचा पाता है जिसको किसी न किसी पुलिस अधिकारी का आशीर्वाद प्राप्त रहता है। जब अति हो जाती है तब कोई न कोई पुलिस अधिकारी ही उसके आतंक का अंत करता है। मैं पुनः कहूँगा कि पूरी की पूरी लोकतांत्रिक व्यवस्था में पुलिस न सिर्फ सर्वशक्तिमान है बल्कि सभी शक्ति-केंद्रों के आसपास उपस्थित भी दिखती है। पीएम से लेकर सीएम तक। डीएम से लेकर एमएलए एमपी तक। दंडाधिकारी से लेकर न्यायाधिकारी यानी न्यायाधीश तक। बिना पुलिस के सुरक्षित महसूस नहीं करते। पुलिस को नियंत्रित करने वाले भी पुलिस सुरक्षा के बिना नहीं रहते या यूँ कहें कि नहीं रह सकते। मेरी बात शायद अब समझ में आ रही होगी कि क्यों हमने पुलिस की तुलना ईश्वर से की है।
पुलिस की असीमित-शक्ति का अनुमान इस बात से लगाया जा सकता है कि आईपीसी और सीआरपीसी में दिए गए प्राविधान अनुसार यदि पुलिस को इस बात का सिर्फ अंदेशा हो जाए कि अमुक व्यक्ति के द्वारा अथवा अमुक व्यक्ति के कारण क्षेत्र में अशांति फैल सकती है या कानून व्यवस्था बिगड़ सकती है अथवा अमुक व्यक्ति द्वारा संज्ञेय अपराध किये जाने की आशंका उत्पन्न हो जाये, अथवा किसी द्वारा अपनी पहचान सम्बन्धी गलत सूचना जानकारी दिए जाने की आशंका हो तो पुलिस ऐसे व्यक्ति को शक के आधार पर गिरफ्तार कर सकती है।
यह जानना जरूरी है कि पुलिस है क्या, इसकी जरूरत क्या है? पुलिस को पुलिस बल भी कहा जाता है। पुलिस मायने “व्यवस्था बनाए रखने, अपराध को रोकने और उसका पता लगाने तथा कानूनों को लागू करने के लिए एक संगठित नागरिक बल।” पुलिस का मूल कर्तव्य कानून व्यवस्था व लोक व्यवस्था को स्थापित रखना तथा अपराध नियंत्रण व निवारण तथा जनता से प्राप्त शिकायतों का निस्तारण करना है। समाज के समस्त वर्गों में सद्भाव कायम रखने हेतु आवश्यक प्रबंध करना, महत्वपूर्ण व्यक्तियों व संस्थानों की सुरक्षा करना तथा समस्त व्यक्तियों के जान व माल की सुरक्षा करना है। यहाँ एक बात स्पष्ट करना चाहूँगा कि जिस प्रकार अनेक अकर्मण्य-बुद्धिमान कुछ किये बिना ही अपने पुरखों की कमाई पीढ़ी दर पीढ़ी खाते रहते हैं उसी प्रकार यह पुलिस भी पूर्व अधिकारियों द्वारा अपनी कार्यशैली से कायम किये गए ख़ौफ़ की बदौलत, मस्त रहती है। जबकि इसे अपने अधिकार और कर्तव्यों को आधार बनाकर क्षेत्र, समाज में नए मूल्य, नई पहचान स्थापित करनी चाहिए। इन महत्वपूर्ण कार्यों के लिए वांछित समय ही नहीं है पुलिस के पास। समय तो सबके पास प्रत्येक दिन में 24 घण्टे होता ही है। पुलिस के पास भी इतना ही समय है। किंतु पुलिस को अन्य कार्यों में इतना व्यस्त कर दिया गया है कि उसे खाने सोने की फुर्सत ही न मिल पा रही है, कर्तव्य निभाने की बात ही बेकार है। सच यह बात भी है कि इन परिस्थितियों का फायदा उठाकर कुछ पुलिस कर्मी अपनी बदनियती पूर्ण कार्यशैली से खाकी वर्दी को दागदार बनाते रहते हैं तो ऐसे भी पुलिस कर्मी हैं जो इन्ही विषम परिस्थितियों में ही अपनी सामाजिक व जनहितकारी सोंच से प्रेरित होकर अपने कर्मो से दागदार वर्दी को निर्मल बनाते रहते हैं।
अदूरदर्शी नीतियों योजनाओं के परिणाम हैं कि दो विभाग ऐसे हैं जिन पर विभागीय दायित्वों से इतर बहुतायत कार्य दायित्व सौंपे जाते रहते है। यानी इन दोनों विभाग के कर्मचारी ओवर लोड रहते हैं। यह दो विभाग हैं पुलिस और शिक्षा। पिछले दशक से दोनों विभाग की धूमिल छवि को उज्ज्वल बनाने की कवायद शुरू हुई थी। जिसमें शिक्षा विभाग काफी सफल हो रहा है किंतु पुलिस विभाग में कोई विशेष बदलाव नहीं आया है। कारण है अतिरिक्त भार अधिक और बजट कम। सब जानते हैं कि पुलिस को वर्दी भत्ता, धुलाई भत्ता, वाहन का ईंधन, आफिस की स्टेशनरी, आवासीय भत्ता आदि इत्यादि में क्या खर्च आता है और क्या मिलता है? फिर भी शासन-प्रशासन कोई नवाचार नहीं करता है और न ही बजट बढ़ाने की बात उठाई जाती है। किसी ने कभी क्यों नहीं सोचा कि आखिर कहाँ से चल रहे हैं ये खर्चे? सहज अनुमन्य है कि आपराधिक गतिविधियों में लिप्त, अन्यथा लाभ कमाने वालों से ही दांए बांए प्राप्त धनराशि से उक्त खर्चे चल रहे हैं? आखिर क्यों नहीं समीक्षा होती है? क्यों बन्द रखी जाती हैं आँखें?
पुनः उसी बात पर फिर आते हैं कि बिना पुलिस की मर्जी के पत्ता नहीं हिल सकता। इस पूरी अव्यवस्था से सबसे ज्यादा प्रभावित हो रहे हैं गाँव। धीरे-धीरे बदलती जा रही है गाँव की पहचान। अब गाँव की गलियों में भी जुआ खेलते, नसीली सिगरेट का धुँवा उड़ाते, खुले आम दारू पीकर माँ-बहन की गालियाँ बकते मिल जाएंगे लोग। इन सबमें तथा मनबढ़ लोगों के द्वारा उत्पन्न किये कराए गए छोटे-छोटे झगड़ों में या तो पुलिस का वह अदृश्य खौफ नहीं रहा अथवा प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष पुलिस का आशिर्वाद मिल जाता रहता है? जो भी हो गाँव की स्वतःचालित शान्तिमयी-व्यवस्था मरणासन्न है। गाँवों का आपसी सौहार्द भी लगभग समाप्ति के कगार पर है। ग्राम स्तरीय पुलिस कर्मी जिसे विभाग बीट-पुलिस कर्मी कहता है और हल्का प्रभारी यानी उपनिरीक्षक सोंच भर लें कि अमुक गाँव में अमुक अपराध बन्द करवा देना है। कुछ कसरत कर ली जाए जनजागरण की बस। मुझे लगता है कि 80 प्रतिशत अपराध ऐसे ही बन्द हो जाएंगे। सवाल वही है कि न तो ऐसे कार्य के लिए समय बचता है, न ही समीक्षात्मक प्रणाली में विभागीय प्राथमिकता है। सबकुछ के बाद अगर एक पुलिस कर्मी अपने क्षेत्र में कुछ बेहतर करना चाह ले तो अनेक व्यवधानों के बाद भी बहुत कुछ वह कर सकेगा तथा गाँव की असल तासीर यानी ग्राम-संस्कृति यानी शांति- सुकून तथा छोटे झगड़ो के कारण नष्ट हो रहे आपसी सौहार्द को बचाए रखा जा सकता है। यदि पर्याप्त पुलिस कर्मी हों तथा पर्याप्त विभगीय बजट हो तो पुलिस अपनी कसौटी पर खरी उतर सकती है? विभगीय बजट से हमारा आशय अन्य खर्चो को शामिल करते हुए अन्य विभाग के कर्मचारियों की तुलना में पुलिस के वेतन तथा तकनीकी रूप से पुलिस को समर्थ बनाने भी से है। जिस दिन एक भी सक्षम अधिकारी इन बातों की गम्भीरता समझेगा और खुलकर ये बातें मुख्यमंत्री, गृहमंत्री के समक्ष उचित माध्यम और उचित तरीके से प्रस्तुत हो पाएंगी वह दिन पुलिस विभाग के आमूल-चूल परिवर्तन का दिन होगा।

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