एक जगह जहां प्रसाद में पौधा बंटता है

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मंदिर में चढाए गए प्रसाद को बहुत पवित्र माना जाता है औऱ अगर वो गिर जाता है तो भी लोग उसे ज़मीन से उठा कर खा लेते हैं. कोई भी प्रसाद फेंकता नहीं है. इसी बात को ध्यान में रखते हुए उन्होंने एक नए अभियान की शुरुआत की है.

70 के दशक में एक एनिमेशन फिल्म आई, जो आज तक बच्चे उतने ही चाव से देखते हैं. एक, अनेक, एकता. इस लघु फिल्म में एक बहन अपने भाई को चिड़ियों की एकजुटता के ज़रिये एकता का पाठ पढ़ाती है.इस फिल्म के अंतिम सिरे में छोटा भाई अपनी बहन से पूछता है, दीदी अगर हम एक हो जाए तो क्या कोई बड़ा काम कर सकते हैं. दीदी बोलती है, हां हां क्यों नहीं, भाई कहता है, तो क्या इस पेड़ के आम भी तोड़ सकते हैं. दीदी बोलती है, बिल्कुल पर जुगत लगानी होगी.

ये जो जुगत लगाने वाली बात है इसकी ही आज ज्यादा ज़रूरत है. और कुछ लोग आज ऐसा काम कर रहे हैं जिससे लगता है कि उनकी जुगत, उनकी एकजुटता ने असर दिखाना शुरू कर दिया है.

बांदा जिला एक ऐसा जिला है जिसके बारे में अब तक हम कुछ सिमटे हुए विचारों के साथ बात करते थे. लेकिन इस जिले में गांव के स्तर पर, शहरों के स्तर पर, प्रशासनिक स्तर पर कुछ काम ऐसे हो रहे हैं जिसने इन्हें ना सिर्फ खबरों में जगह दिलाई है बल्कि अब सरकार भी इन्हें अपने नीतियों में मॉडल के तौर पर प्रस्तुत कर रही है.

खास बात ये है कि बांदा जिले में जो कुछ भी काम हुआ उसमें हमें एक बात स्पष्ट नज़र आती है वो है एकजुटता. यहां पर लोगों ने एकजुटता के साथ जो संकल्प लेकर आगे बढ़े है उसका ही नतीजा है कि यहां पर पानी को लेकर बीते सालों में बेहतरीन काम हुआ. यही नहीं इस जिले के जखनी गांव को जलग्राम तक घोषित किया गया. उसी तर्ज पर आगे बढ़ते हुएउत्तरप्रदेश के बांदा जिले के जिलाधिकारी ने एक अनूठी पहल की है. दरअसल इन्होंने ये देखते हुए कि मंदिर में चढाए गए प्रसाद को बहुत पवित्र माना जाता है औऱ अगर वो गिर जाता है तो भी लोग उसे ज़मीन से उठा कर खा लेते हैं. कोई भी प्रसाद फेंकता नहीं है. इसी बात को ध्यान में रखते हुए उन्होंने एक नए अभियान की शुरुआत की है. अपने पुराने अभियान कुआं तालाब जियाओ अभियान की तर्ज पर उन्होंने इस अभियान का नाम, वृक्ष जियाओ अभियान रखा है. यानि सिर्फ पौधे को लगाना नहीं है उसे बचाना भी है. उसकी देखरेख भी करनी है. और इस अभियान मे उन्होंने मंदिरो को भी जोड़ा है. अब मंदिरो में भक्तों को नारियल, लड्डू के साथ प्रसाद में पौधा भी दिया जाएगा. यहां तक कि भक्तों से भी अनुरोध किया गया है कि वो प्रसाद में पौधा चढ़ाए जो उन्हें वापस मिलेगा या मंदिर के पुजारी दूसरे भक्तों को भी पौधे प्रसाद के तौर पर देंगे. यही नहीं मस्जिद-मजार, गुरुद्वारे में भी पहल की जा रही है. स्वाभाविक है जब किसी को प्रसाद के तौर पर पौधा मिलेगा तो वो उसकी देखरेख करेगा और उसे मरने नहीं देगा.जहां एक तरफ केंद्रीय वन मंत्री प्रकाश जावड़ेकर ने जंगलों की स्थिति पर जारी रिपोर्ट में दावा किया है कि देश के जंगल का कुल क्षेत्र (फॉरेस्ट कवर) बढ गया है. लेकिन वहीं मध्यम दर्जे के सघन वन क्षेत्र घटे हैं और पूर्वोत्तर राज्यों में जंगलो कम हुए हैं जो अच्छे संकेत नहीं देते हैं. केंद्रीय वन और पर्यावरण मंत्री प्रकाश जावड़ेकर ने स्टेट ऑफ इंडिया फॉरेस्ट रिपोर्ट के जरिये बताया कि 2011 में कुल वन क्षेत्र 6,92,027 वर्ग किलोमीटर था जो 2019 तक बढ़कर 7,12,249 वर्ग किलोमीटर हो गया है. लेकिन यहां ध्यान देने वाली बात ये है कि पिछले एक दशक में सबसे अधिक वृद्धि खुले वन क्षेत्र में हुई है, लेकिन सामान्य घने वन क्षेत्र में 3.8 फीसद की कमी दर्ज की गई है. इसका सीधा सीधा मतलब है कि जो खुले वन क्षेत्र में बढ़ोतरी हुई है उसमें कमर्शियल वृक्षोरोपण भी शुमार है. इससे एक बात और निकल कर आती है कि जिस तरह से घने वनों में कमी आ रही है दरअसल उनकी कीमत पर ही कमर्शियल वृक्षारोपण हो रहा है. सरकारे जिस तरह से रिपोर्टें पेश करने में लगी हुई है वहीं बांदा जिले मे प्रकृति को सहेजने, पानी को बचाने के लिए पिछले कुछ सालों से जो लगातार काम हो रहे हैं वो वाकई में लाजवाब है. खास बात ये है कि यहां प्रशासन से लेकर जनता तक सभी इसे एक काम की तरह नहीं ले रहे हैं. नहीं तो काम को तौर पर ही भारत में हर साल वृक्षारोपण अभियान चलाए जाते हैं, लेकिन जितने पेड़ लगाए जाते हैं उनमें से केवल 10 फीसद ही बच पाते हैं और बाकी देखभाल के अभाव में खत्म हो जाते हैं. तमाम कोशिशों के बावजूद हर साल भारत का वन क्षेत्र लगातार घटता जा रहा है.

यही नहीं बांदा जिले का जखनी गांव ने भी एक मिसाल कायम की है. इस गांव को तो नीति आयोग ने जलग्राम घोषित कर दिया और एक मॉडल ग्राम बनाकर देश के दूसरे गांवों को भी ये नीति अपनाने की बात कही है. यहां पर रहने वाले उमाशंकर पांडेय ने अपने गांव वालों के साथ मिलकर एकजुटता के साथ लगातार 15 साल संघर्ष किया और आज ये गांव पानी से सराबोर है. खास बात ये है कि इस गांव ने किसी भी तरह का सरकारी अनुदान नहीं लिया. बस खुद की ही दम पर धीरे-धीरे करके अपने गांव को एक मिसाल बना दिया. खेत पर मेड़, मेड़ पर पेड़ इस अभियान के साथ लगातार यहां के लोगों ने काम किया. औऱ खेतों के पान और खेतों पर मेड़ लगाकर भूजल स्तर को 15 फीट पर ले आए. अहम बात ये है कि आप इस गांव में घूमेंगे तो आपको हर तरफ एक सकारात्मक तरंग मिलेगी. कोई जात-पात,किसी तरह का धार्मिक द्वेष नजर नहीं आता है. ये गांव आकर आपको अहसास होगा कि इनके लिए प्रकृति और पानी ही ऊपरवाला है. इन्होंने अपने गांव को एक जलतीर्थ बना दिया है. जहां सभी धर्म के लोग मिल जुलकर प्रकति को सहेजने में लगे हुए हैं.

बांदा जिले की तरह ही मध्यप्रदेश का झाबुआ में आदिवासियों में एक प्रथा चलती है जिसे हलमा कहा जाता है. इस प्रथा के चलते समुदाय में अगर किसी व्यक्ति को लगता है कि कोई काम वो अकेला नहीं कर सकता है, मसलन घर बनाना है लेकिन वो नहीं बना सकता है, बेटी का ब्याह नहीं कर सकता है या ऐसा कुछ भी तो वो हलमा बुलाता है. इसका मतलब होता है कि वो अपने समुदाय से मदद की गुहार करता है, फिर सारा समुदाय एकजुट हो कर आता है और एक दिन में उस व्यक्ति का सारा काम निपटा देता है. इसी तर्ज पर इस बार गांव के आदिवासियों के लिए एक हलमा बुलावा आया, खास बात ये है कि पर्यावरणविद ने इस बार कहा कि धरती प्यासी है और वो हलमा बुला रही है. दिसंबर के मध्य में आदिवासियों की मीटिंग हुई और करीब 400 आदिवासी वहां पर जुटे. अब ये 400 लोग समुदाय के दूसरे लोगों तक ये बात पहुचाएंगे इस तरह मार्च की शुरुआत में एक दिन अपने घर से निकलेंगे और सारे मिलकर हज़ारो तालाब खोदेंगे. यहां का आदिवासी समुदाय इससे पहले भी ये काम कर चुका है.सरकारें जिस तरह से प्रकृति को बचाने की खाना पूर्ति में लगी हुई है वहीं देश भर में लोगों की एकजुटता ही है जो प्रकृति के सहेजने का एकमात्र विकल्प है. हमें ये समझना होगा कि प्रकृति-पानी को बचाने के लिए हमें खुद को ही कमर कसनी होगी,हम सरकारों के भरोसे नहीं रह सकते हैं. क्योंकि सरकार आएंगी और जाएंगी, आप वहीं रहेंगे. इसलिए अगर बांदा की तर्ज पर आप भी पौधे का प्रसाद ग्रहण कर लें तो नया साल हरा भरा हो सकता है.

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